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कविता

समय है न पिता

विमलेश त्रिपाठी


समय है न पिता कि बदलता रहता है
तुम चाहे बैठे रहो देहरी पर अनजान
खोये रहो अपने पटान हो गये खेतों के
दुबारा लौट आने के असम्भव सपने में
पर सूरज है न कि एक बार उगने के बाद
दुबारा वैसे ही नहीं उगेगा

फैल जायेगी धीरे-धीरे शहर की धूल
तुम्हारे घर के एक-एक कोने तक
तब कैसे बचाओगे पिता तुम
अपनी साँसों में हाँफ रही
पुरखों की पुरानी हवेली

समय है न पिता कि सबसे बड़ा सबसे बलवान
उसे छोड़कर भाग जाओगे, तो भी कहाँ तक
अन्ततः तो तुम्हें एक जगह रुकना ही पड़ेगा

तुम्हारे आँगन में तुलसी के साथ
गुलाब के फूल भी रोपे जायेंगे
तुम खिसिया जाओगे
हो सकता है कि गुलाब को देश निकाला दे दो
पर समय पिता, उससे कैसे लड़ोगे

चाहे भूल जाओ तुम समय को
अपने संस्कारों की अन्धी भीड़ में
पर समय पिता
वह तो बदलेगा आगे बढ़ेगा ही उसका रथ

तुम चाहे बैठे रहो
अपने झोले में आदिम स्मृतियाँ सँजोए
पर एक बार हुई सुबह दुबारा
वैसी ही नहीं होगी

और हर आने वाला दिन
नहीं होगा बिल्कुल पहले की तरह

 


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